कई साल पहले, मैंने अपने पाठ्यक्रम के बाहर, पहली बार कोई साहित्यिक पुस्तक पढ़ी थी; किताब थी - बच्चन जी की शायद सबसे लोकप्रिय कृति "मधुशाला"। उसको पढ़कर पहली बार कुछ लिखने का प्रयास किया था। हालाँकि मैं इसे अपनी रचना नहीं मान सकता क्योंकि यह बच्चन जी की कविता की मात्र नकल थी। पर इस नकल में भी मैं कितना सफल हो सका हूँ, मैं नहीं जानता। आज आप को वही नकल पढ़ा रहा हूँ। आशा है कि मेरे इस दुस्साहस के लिये स्वर्गीय बच्चन जी के अन्य चाहने वाले (मैं स्वयं को भी उनमें से एक मानता हूँ) मुझे माफ करेंगे।
तेरे विरहा की भट्ठी में तपता आँसू-जल हाला
तेरी यादों की मिट्टी से निर्मित है मधु का प्याला
तेरे मिलने को आतुर मन है मेरा सुन्दर साकी
मैं हूँ इसका प्यासा मादक तनहाई है मधुशाला
और अंत में, मधुशाला के ही बहाने बच्चन जी को, मैं श्रद्धाँजलि अर्पित करता हूँ।
बच्चन जी ने निज हाथों से गूँथी शब्दों की माला
जन जन के मन को भायी आखिर कविता थी आला।
हर भावुक पाठक के मन को मस्त बनाती वो हाला
युगों युगों तक याद रहेगी जग को उनकी मधुशाला।
सोमवार, 25 जून 2007
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