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बुधवार, 5 सितंबर 2007

कंक्रीट का जंगल

दूर जहाँ तक नज़र जाती है
फैला हुआ अनंत आकाश
जिसपर कुछ नजर आता है
तो आग बरसाता सूरज
यही सूरज कुछ समय पहले
गैहूँ की बालियों में सोना उड़ेलता था
लहलहाते खेतों से गुजरती हवा
एक अजीब सी ताजगी लेकर आती थी
पर अब वो खेत ही नहीं
रह गया है तो ये कंक्रीट का जंगल
जो फैलता ही जा रहा है
सब कुछ निगलता हुआ
और रफ्तार ऐसी कि शर्मा जाये
सुरसा के मुख की, पुरानी उपमा भी
लगता है कि छोटी पड़ जायेगी ये धरा
अपनी ही संतान के लिये
और फिर जब खेत ही न होंगे...........????

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8 टिप्पणियाँ:

  1. सही कहा आपने, विकास की आंधी के साथ एक संतुलन की जरूरत है .
    युग्म पर आपकी ग़ज़ल तेरे हुस्न के सदके में पढी , उर्दू जबान पर आपकी अच्छी पकड़ है. लिखते रहें.

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  2. बहुत खूब अजय जी।सच कहा है आपने कि हर ओर कंक्रीट का जंगल जिस तरह से फैलता जा रहा है, एक दिन जमीन दिखेगी नहीं। ऎसे हीं लिखते रहें।

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  3. अजय आप बहुत अच्छा लिखते है बहुत अच्छा लगता है पढ़्कर
    आपको भी जन्माष्टमी की ढॆर सारी शुभकामनायें

    शानू

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  4. अजय जी कंक‍ीट का जंगल कविता के रूप में आपने मेरे पिय विषय पर लिखा है। यह बहुत ही सुखद है कि नयी पीढ़ी इस बारे में जागरूक हो रही है। शुभकामनायें
    श्रीकान्त मिश्र 'कान्त'

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  5. आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा.
    ऎसेही लिखेते रहिये.
    क्यों न आप अपना ब्लोग ब्लोगअड्डा में शामिल कर के अपने विचार ऒंर लोगों तक पहुंचाते.
    जो हमे अच्छा लगे.
    वो सबको पता चले.
    ऎसा छोटासा प्रयास है.
    हमारे इस प्रयास में.
    आप भी शामिल हो जाइयॆ.
    एक बार ब्लोग अड्डा में आके देखिये.

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  6. उपाय तो निकालना होगा. अगर सुरसा का मुंह बढ़ता जा रहा था तो पवन सुत ने मसक समान रूप धर कर उपाय निकाला था. कुछ वैसा ही करना होगा हमें.
    उत्तर नैराश्य में नहीं - शायद इस विश्वास में है कि समाधान है. पता नहीं; मैं अपने को स्पष्ट कर पा रहा हूं कि नहीं... मुझे पर्यावरणवादियों की निराशा कुछ जमती नहीं!

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  7. प्रिय अजय, काफी सशक्त लेखनी है आप की. लिखते रहें.

    एकाध रचना के साथ उसकी रचना की पृष्टभूमि भी देते जाओ तो पाठक उसे बहुत पसंद करेंगे -- शास्त्री जे सी फिलिप

    मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
    2020 में 50 लाख, एवं 2025 मे एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार!!

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  8. कविता को पढ़ने और सराहने के लिये आप सभी पाठकों का आभार!
    @ शास्त्री जी! आपकी बात का मैं ध्यान रखूँगा.
    @ ज्ञान जी! मैं निराशावादी नहीं हूँ, परंतु वस्तुस्थिति की भयावहता दिखाये बिना इसके समाधान की कोई संभावना भी तो नहीं. इसे समझ कर हमें स्वयं ही कुछ करना होगा, तभी हम प्रकृति की इस धरोहर को बचा पायेंगे.

    -अजय यादव

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