होली की मस्ती के बाद, आइये एक बार फिर लौटते हैं क़ैफ़ी साहब की ज़िन्दगी और शायरी और ज़िन्दगी के अफ़साने की ओर.
मुंबई पहुँचने के बाद क़ैफ़ी साहब ने फिल्मों के लिये गीतकार और स्क्रिप्ट-लेखक के रूप में काम करना शुरू कर दिया. इस बीच उनके दोनों बच्चों शबाना और बाबा आज़मी का जन्म हुआ. पार्टी के लिये काम भी लगातार चलता रहा. क़ैफ़ी साहब ने जिन फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी उनमें प्रमुख थीं - यहूदी की बेटी (1956), ईद का चाँद (1958), हीर-राँझा (1970), गरम हवा (1973), मन्थन (1976) आदि. चेतन आनंद की हीर-राँझा के तो सारे डायलाग ही पद्य में थे और इस तरह ये हिन्दी फिल्म-इतिहास में अपना एक अलग स्थान रखती है. उन्होंने जिन फिल्मों के लिये गीत लिखे उनमें से कुछ हैं: काग़ज़ के फूल (1959), हक़ीक़त (1964), बावर्ची (1972), पाक़ीज़ा (1972), हँसते ज़ख्म (1973), रज़िया सुल्तान (1983) आदि. क़ैफ़ी साहब ने बाबरी-मस्ज़िद प्रकरण पर 1995 में बनी फिल्म 'नसीम' में एक्टिंग भी की. वे नाट्य-संस्था इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोशियेसन 'इप्टा' के भी महत्वपूर्ण सदस्य और अध्यक्ष रहे.
नज़्मों के सिलसिले में आज सबसे पहले पढ़ते हैं, हमारे 'मीत' अमिताभ जी की इच्छानुरूप क़ैफ़ी साहब की बहुत ही खूबसूरत नज़्म 'नज़्राना' को.
तुम परेशान न हो, बाब-ए-करम वा न करो
और कुछ देर पुकारूँगा चला जाऊँगा
इसी कूचे में जहाँ चाँद उगा करते हैं
शब-ए-तारीक़ गुज़ारूँगा चला जाऊँगा
रास्ता भूल गया या यही मंज़िल है मेरी
कोई लाया है या खुद आया हूँ मालूम नहीं
कहते हैं हुस्न की नज़रें भी हसीं होती हैं
मैं भी कुछ लाया हूँ, क्या लाया हूँ मालूम नहीं
यूँ तो जो कुछ था मेरे पास में सब बेच आया
कहीं इनआम मिला और कहीं कीमत भी नहीं
कुछ तुम्हारे लिये आँखों में छिपा रखा है
देख लो और न देखो तो शिकायत भी नहीं
एक तो इतनी हसीं दूसरे यह आराइश
जो नज़र पड़ती है चेहरे पे ठहर जाती है
मुस्करा देती हो रस्मन भी अगर महफ़िल में
इक धनक टूट के सीनों में बिखर जाती है
गर्म बोसों से तराशा हुआ नाज़ुक पैकर
जिस की इक आँच से हर रूह पिघल जाती है
मैंने सोचा है तो सब सोचते होंगे शायद
प्यास इस तरह भी क्या साँचे में ढल जाती है
क्या कमी है जो करोगी मेरा नज़्रान: क़बूल
चाहने वाले बहुत, चाह के अफ़साने बहुत
एक ही रात सही गर्मी-ए-हंगामा-ए-इश्क़
एक ही रात में जल मरते हैं पर्वाने बहुत
फिर भी इक रात में सौ तरह के मोड़ आते हैं
काश तुम को कभी तन्हाई का अहसास न हो
काश ऐसा न हो घेरे रहे दुनिया तुम को
और इस तरह जिस तरह कोई पास न हो
आज की रात जो मेरी ही तरह तन्हा है
मैं किसी तरह गुज़ारूँगा चला जाऊँगा
तुम परेशान न हो, बाब-ए-करम वा न करो
और कुछ देर पुकारूँगा चला जाऊँगा
और अब धार्मिक विद्वेष पर प्रहार करती एक और सुंदर नज़्म 'सोमनाथ':
बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाये
हमने कुछ बुत अभी सीने में सजा रक्खे हैं
अपनी यादों में बसा रक्खे हैं
दिल पे यह सोच के पथराव करो दीवानो
कि जहाँ हमने सनम अपने छिपा रक्खे हैं
वहीं गज़नी के खुदा रक्खे हैं
बुत जो टूटे तो किसी तरह बना लेंगे उन्हें
टुकड़े टुकड़े सही दामन में उठा लेंगे उन्हें
फिर से उजड़े हुये सीने में सजा लेंगे उन्हें
गर खुदा टूटेगा हम तो न बना पायेंगे
उस के बिखरे हुये टुकड़े न उठा पायेंगे
तुम उठा लो तो उठा लो शायद
तुम बना लो तो बना लो शायद
तुम बनाओ तो खुदा जाने बनाओ क्या
अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी
प्यार होगा न ज़माने में मुहब्बत होगी
दुश्मनी होगी अदावत होगी
हम से उस की न इबादत होगी
वह्शते-बुत शिकनी देख के हैरान हूँ मैं
बुत-परस्ती मिरा शेवा है कि इंसान हूँ मैं
इक न इक बुत तो हर इक दिल में छिपा होता है
उस के सौ नामों में इक नाम खुदा होता है
और आखिर में आइये सुनते हैं; हेमन्त कुमार का गाया और उन्हीं का स्वर-बद्ध किया एक गीत, फिल्म ’अनुपमा' से.
या दिल की सुनो दुनियावालो
या मुझको अभी चुप रहने दो
मैं ग़म को खुशी कैसे कह दूँ
जो कहते हैं उनको कहने दो
ये फूल चमन मे कैसा खिला
माली की नज़र मे प्यार नहीं
हँसते हुए क्या क्या देख लिया
अब बहते हैं आँसू बहने दो
या दिल की सुनो ...
एक ख्वाब खुशी का देखा नहीं
देखा जो कभी तो भूल गये
माना हम तुम्हें कुछ दे ना सके
जो तुमने दिया वो सहने दो
या दिल की सुनो ...
क्या दर्द किसी का लेगा कोई
इतना तो किसी में दर्द नहीं
बहते हुए आँसू और बहें
अब ऐसी तसल्ली रहने दो
या दिल की सुनो ...
कुछ मुश्किल शब्दों के अर्थ:
1) बाव-ए-करम - दया का विषय
2) वा - प्रारम्भ
3) शब-ए-तारीक़ - अंधेरी रात
4) आराइश - साज-सज्जा
5) पैकर- ज़िस्म
6) बुतशिकन - मूर्तियाँ तोड़ने वाले
7) शेवा - आदत
रविवार, 23 मार्च 2008
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शुक्रिया अजय साहब. बहुत खूबसूरत नज़्म है ये. सोचा है कि किसी दिन इसे पढ़ कर अपने ब्लॉग "किस से कहें" पर ज़रूर पोस्ट करूँगा. उम्मीद है इस इतनी खूबसूरत नज़्म के साथ नाइंसाफी नहीं करूंगा. कै़फ़ी साहब की और भी रचनाएं पढ़वाएं, आभारी रहूँगा.
जवाब देंहटाएंपोस्ट पर आपने काफी मेहनत की है और काफी सुन्दर बन पड़ी है पोस्ट!
जवाब देंहटाएंमुझे तो पता ही नहीं था कि आप कैफी साहब पर श्रृंखला कर रहे हैं । बहुत ही उम्दा प्रयास । काफी शोध नज़र आ रहा है । फुरसत पाते ही पीछे के लेख पढ़ने होंगे । जारी रखिए । अगर यू ट्यूब पर चहलक़दमी करेंगे तो कैफी साहब के वीडियो मिल जायेंगे और हां एक और बात । किसी ज़माने में कैफियत के नाम से कैफी साहब के काव्य पाठ की एक कैसेट आई थी । अगर आप खोजेंगे तो वो भी मिल जाएगी । शायद मेरे संग्रह में भी कहीं दबी पड़ी होगी ।
जवाब देंहटाएंकैफ़ी साहब पर आपकी पूरी श्रृंखला पढ़ी। कैफ़ी साहब के जीवन से मुत्तालिक बहुत सारी नई बातें पता चलीं। बहुत बहुत शुक्रिया!
जवाब देंहटाएंनज़राना तो मेरी डॉयरी में थी पर सोमनाथ पर उनकी नज़्म मैंने नहीं पढ़ी थी। यहाँ बाँटने के लिए आभार !
Tere husne ke hum diwane ho gaye
जवाब देंहटाएंTuhje apna banate banate hum khud se begane ho gaye
Na chod na mujhe tu aaye zalim
Tere kareeb aakar hum duniya se dur hogaye.
Gujar Gayi Who Sitaaron Wali Sunahri Raat,
जवाब देंहटाएंAa Gayi Yaad Who Tumhari Pyari Si Baat
Aksar Hoti Rehti Thi Hamaari Mulaqaat
Bin Aapke Hoti Hai Ab Toh Din Ki Shuruaat...
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