'पद्म श्री' से अलंकृत कैफ़ी आज़मी को उनकी किताब 'आवारा सिज़्दे' के लिये साहित्य अकादमी पुरुष्कार तथा उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरुष्कार प्रदान किया गया. इसके अलावा उन्हें सोवियत लैन्ड नेहरू पुरुष्कार, लोटस अवार्ड, महाराष्ट्र उर्दू अकादमी की ओर से विशेष पुरुष्कार आदि अन्य अनेक पुरुष्कार समय-समय पर मिलते रहे. उन्हें राष्ट्रपति पुरुष्कार तथा सन २००० में दिल्ली सरकार का पहला सहष्त्राब्दि पुरुष्कार भी मिला.
विश्व-भारती विश्व-विद्यालय, शांतिनिकेतन की तरफ़ से डाक्टरेट से सम्मानित कैफ़ी साहब को फिल्म 'सात हिन्दुस्तानी' के लिये १९६९ का राष्ट्रीय फिल्म पुरुष्कार तथा १९७४ में फ़िल्म 'गरम हवा' के संवाद व स्क्रीनप्ले के लिये फिल्मफेयर पुरुष्कार से भी नवाज़ा गया.
उनके सम्मान में दिल्ली से आज़मगढ़ के मध्य चलने वाली एक ट्रेन का नाम 'कैफ़ियात' रखा गया है. यहाँ एक बात का ज़िक्र और कर दूँ कि १९९७ में 'क़ैफ़ियात' नाम से ही एक एलबम आई थी जिसमें क़ैफ़ी साहब ने खुद अपनी रचनाओं को आवाज़ दी थी.
१० मई, २००२ में उनकी मृत्यु के बाद उनकी बेटी शबाना आज़मी (यहाँ मुझे शबाना जी से जुड़ी एक बात याद आ गई. शबाना का जब जन्म हुआ, उस समय क़ैफ़ी साहब ज़ेल में थे और कम्युनिस्ट पार्टी नहीं चाहती थी कि ऐसी हालत में शौकत किसी बच्चे को जन्म दें. पार्टी की ओर से बाकायदा शौक़त को इस वाबत आदेश भी मिला था मगर ये उनकी ज़िद ही थी कि शबाना का जन्म हुआ और दुनिया को अदाकारी का एक अनमोल नगीना मिला.) ने अपने पति ज़ावेद अख्तर के साथ मिलकर श्रीमती शौक़त क़ैफ़ी के संस्मरणों 'शौक़त क़ैफ़ी - यादों की रहगुज़र' पर आधारित एक नाटक 'क़ैफ़ी और मैं' का मंचन सन २००६ में देश व विदेश के कई स्थानों पर किया.
अब आइये पढ़ें क़ैफ़ी साहब की एक नज़्म 'चरागाँ' जो मुझे व्यक्तिगत रूप से बहुत पसंद है.
एक दो भी नहीं छब्बीस दिये
एक इक करके जलाये मैंने
इक दिया नाम का आज़ादी के
उसने जलते हुये होठों से कहा
चाहे जिस मुल्क से गेहूँ माँगो
हाथ फैलाने की आज़ादी है
इक दिया नाम का खुशहाली के
उस के जलते ही यह मालूम हुआ
कितनी बदहाली है
पेत खाली है मिरा, ज़ेब मेरी खाली है
इक दिया नाम का यक़जिहती के
रौशनी उस की जहाँ तक पहुँची
क़ौम को लड़ते झगड़ते देखा
माँ के आँचल में हैं जितने पैबंद
सब को इक साथ उधड़ते देखा
दूर से बीवी ने झल्ला के कहा
तेल महँगा भी है, मिलता भी नहीं
क्यों दिये इतने जला रक्खे हैं
अपने घर में झरोखा न मुन्डेर
ताक़ सपनों के सजा रक्खे हैं
आया गुस्से का इक ऐसा झोंका
बुझ गये सारे दिये-
हाँ मगर एक दिया, नाम है जिसका उम्मीद
झिलमिलाता ही चला जाता है.
और अब एक गज़ल:
हाथ आकर लगा गया कोई
मेरा छप्पर उठा गया कोई
लग गया इक मशीन में मैं
शहर में ले के आ गया कोई
मैं खड़ा था के पीठ पर मेरी
इश्तिहार इक लगा गया कोई
यह सदी धूप को तरसती है
जैसे सूरज को खा गया कोई
ऐसी मंहगाई है के चेहरा भी
बेच के अपना खा गया कोई
अब बोह अरमान हैं न वो सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई
वोह गए जब से ऐसा लगता है
छोटा मोटा खुदा गया कोई
मेरा बचपन भी साथ ले आया
गांव से जब भी आ गया कोई
आज क़ैफ़ी साहब हमारे बीच नहीं हैं, मगर उनकी शायरी हमेशा हमें उनकी याद दिलाती रहेगी. उनका सपना था एक ऐसे संसार का जहाँ समानता हो, न्याय हो. उनके रहते तो यह सपना सच न हो पाया और:
|
मगर उम्मीद का दिया है कि अब भी झिलमिलाता ही चला जाता है:
|
ये कोशिश आपको कैसी लगी, ज़रूर बतायें.
क्या बात है भइ? एक ओर कैफी साहब के बारे में जानकारी, दूसरी ओर उनकी रचनाएँ और तीसरी ओर आडियो। आप तो छा गये हुजूर। बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति जी। बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंDekhe jo jalwe husne yaar ke
जवाब देंहटाएंHum to chale rahi banke pyaar ke
Likh karr di bayan haal yeh dil ka
Ab to kaat te nehi tere bin lamhe intezaar ka.
Ye Wada Hai Hamara
जवाब देंहटाएंNa Chhodenge Kabhi Saath Apka
Jo Chhod Gaye Aap Hamein Bhool Kar
Le Aayenge Pakar Kar Hath Aapka…