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बुधवार, 16 अप्रैल 2008

असाध्य वीणा : अज्ञेय

कुछ रचनायें एक बार पढ़ते ही मन-मस्तिष्क पर इस कदर छा जातीं हैं कि उन्हें बार-बार पढ़ने की इच्छा होती है. हालाँकि कई बार हम खुद यह नहीं समझ पाते कि उस में ऐसा क्या विशेष है जो बार-बार अपनी ओर खींचता है. ऐसा ही कुछ मेरे साथ इस कविता को पढ़ कर हुआ. चंद दिनों पहले सुप्रसिद्ध कवि अज्ञेय की यह कविता अनायास कहीं नज़र पड़ गयी थी और तब से कई बार इसे पढ़ चुका हूँ पर फिर एक बार और पढ़ने की इच्छा रह ही जाती है. आप भी पढ़िये और बताइये कि आखिर क्या खास है इस रचना मे:

असाध्य वीणा : अज्ञेय




आ गये प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफा-गेह !
राजा ने आसन दिया। कहा :
"कृतकृत्य हुआ मैं तात ! पधारे आप।
भरोसा है अब मुझ को
साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी !"
लघु संकेत समझ राजा का
गण दौड़े ! लाये असाध्य वीणा,
साधक के आगे रख उसको, हट गये।
सभा की उत्सुक आँखें
एक बार वीणा को लख, टिक गयीं
प्रियंवद के चेहरे पर।
"यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रान्तर से
–घने वनों में जहाँ व्रत करते हैं व्रतचारी –
बहुत समय पहले आयी थी।
पूरा तो इतिहास न जान सके हम :
किन्तु सुना है
वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस
अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढा़ था –
उसके कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,
कंधों पर बादल सोते थे,
उसकी करि-शुंडों सी डाले
हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण,
कोटर में भालू बसते थे,
केहरि उसके वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे।
और –सुना है– जड़ उसकी जा पँहुची थी पाताल-लोक,
उसकी गंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था।
उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने
सारा जीवन इसे गढा़ :
हठ-साधना यही थी उस साधक की –
वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।"
राजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले :
"मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी।
पर मेरा अब भी है विश्वास
कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी।
इसे जब सच्चा स्वर-सिद्ध गोद में लेगा।
तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे
वज्रकीर्ति की वीणा,
यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह :
सब उदग्र, पर्युत्सुक,
जन मात्र प्रतीक्षमाण !"
केश-कम्बली गुफा-गेह ने खोला कम्बल।
धरती पर चुपचाप बिछाया।
वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर प्राण खींच,
करके प्रणाम,
अस्पर्श छुअन से छुए तार।
धीरे बोला : "राजन! पर मैं तो
कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ–
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।
वज्रकीर्ति!
प्राचीन किरीटी-तरु!
अभिमन्त्रित वीणा!
ध्यान-मात्र इनका तो गदगद कर देने वाला है।"
चुप हो गया प्रियंवद।
सभा भी मौन हो रही।
वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।
धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।
सभा चकित थी — अरे, प्रियंवद क्या सोता है?
केशकम्बली अथवा होकर पराभूत
झुक गया तार पर?
वीणा सचमुच क्या है असाध्य?
पर उस स्पन्दित सन्नाटे में
मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा–
नहीं, अपने को शोध रहा था।
सघन निविड़ में वह अपने को
सौंप रहा था उसी किरीटी-तरु को
कौन प्रियंवद है कि दंभ कर
इस अभिमन्त्रित कारुवाद्य के सम्मुख आवे?
कौन बजावे
यह वीणा जो स्वंय एक जीवन-भर की साधना रही?
भूल गया था केश-कम्बली राज-सभा को :
कम्बल पर अभिमन्त्रित एक अकेलेपन में डूब गया था
जिसमें साक्षी के आगे था
जीवित रही किरीटी-तरु
जिसकी जड़ वासुकि के फण पर थी आधारित,
जिसके कन्धों पर बादल सोते थे
और कान में जिसके हिमगिरी कहते थे अपने रहस्य।
सम्बोधित कर उस तरु को, करता था
नीरव एकालाप प्रियंवद।
"ओ विशाल तरु!
शत सहस्र पल्लवन-पतझरों ने जिसका नित रूप सँवारा,
कितनी बरसातों कितने खद्योतों ने आरती उतारी,
दिन भौंरे कर गये गुंजरित,
रातों में झिल्ली ने
अनथक मंगल-गान सुनाये,
साँझ सवेरे अनगिन
अनचीन्हे खग-कुल की मोद-भरी क्रीड़ा काकलि
डाली-डाली को कँपा गयी–
ओ दीर्घकाय!
ओ पूरे झारखंड के अग्रज,
तात, सखा, गुरु, आश्रय,
त्राता महच्छाय,
ओ व्याकुल मुखरित वन-ध्वनियों के
वृन्दगान के मूर्त रूप,
मैं तुझे सुनूँ,
देखूँ, ध्याऊँ
अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक :
कहाँ साहस पाऊँ
छू सकूँ तुझे !
तेरी काया को छेद, बाँध कर रची गयी वीणा को
किस स्पर्धा से
हाथ करें आघात
छीनने को तारों से
एक चोट में वह संचित संगीत जिसे रचने में
स्वंय न जाने कितनों के स्पन्दित प्राण रचे गये।
"नहीं, नहीं ! वीणा यह मेरी गोद रही है, रहे,
किन्तु मैं ही तो
तेरी गोदी बैठा मोद-भरा बालक हूँ,
तो तरु-तात ! सँभाल मुझे,
मेरी हर किलक
पुलक में डूब जाय :
मैं सुनूँ,
गुनूँ,
विस्मय से भर आँकू
तेरे अनुभव का एक-एक अन्त:स्वर
तेरे दोलन की लोरी पर झूमूँ मैं तन्मय–
गा तू :
तेरी लय पर मेरी साँसें
भरें, पुरें, रीतें, विश्रान्ति पायें।
"गा तू !
यह वीणा रखी है : तेरा अंग — अपंग।
किन्तु अंगी, तू अक्षत, आत्म-भरित,
रस-विद,
तू गा :
मेरे अंधियारे अंतस में आलोक जगा
स्मृति का
श्रुति का –
तू गा, तू गा, तू गा, तू गा !
"हाँ मुझे स्मरण है :
बदली — कौंध — पत्तियों पर वर्षा बूँदों की पटापट।
घनी रात में महुए का चुपचाप टपकना।
चौंके खग-शावक की चिहुँक।
शिलाओं को दुलारते वन-झरने के
द्रुत लहरीले जल का कल-निनाद।
कुहरें में छन कर आती
पर्वती गाँव के उत्सव-ढोलक की थाप।
गड़रिये की अनमनी बाँसुरी।
कठफोड़े का ठेका। फुलसुँघनी की आतुर फुरकन :
ओस-बूँद की ढरकन-इतनी कोमल, तरल, कि झरते-झरते
मानो हरसिंगार का फूल बन गयी।
भरे शरद के ताल, लहरियों की सरसर-ध्वनि।
कूँजो की क्रेंकार। काँद लम्बी टिट्टिभ की।
पंख-युक्त सायक-सी हंस-बलाका।
चीड़-वनो में गन्ध-अन्ध उन्मद मतंग की जहाँ-तहाँ टकराहट
जल-प्रपात का प्लुत एकस्वर।
झिल्ली-दादुर, कोकिल-चातक की झंकार पुकारों की यति में
संसृति की साँय-साँय।
"हाँ मुझे स्मरण है :
दूर पहाड़ों-से काले मेघों की बाढ़
हाथियों का मानों चिंघाड़ रहा हो यूथ।
घरघराहट चढ़ती बहिया की।
रेतीले कगार का गिरना छ्प-छपाड़।
झंझा की फुफकार, तप्त,
पेड़ों का अररा कर टूट-टूट कर गिरना।
ओले की कर्री चपत।
जमे पाले-ले तनी कटारी-सी सूखी घासों की टूटन।
ऐंठी मिट्टी का स्निग्ध घास में धीरे-धीरे रिसना।
हिम-तुषार के फाहे धरती के घावों को सहलाते चुपचाप।
घाटियों में भरती
गिरती चट्टानों की गूंज –
काँपती मन्द्र — अनुगूँज — साँस खोयी-सी,
धीरे-धीरे नीरव।
"मुझे स्मरण है
हरी तलहटी में, छोटे पेडो़ की ओट ताल पर
बँधे समय वन-पशुओं की नानाबिध आतुर-तृप्त पुकारें :
गर्जन, घुर्घुर, चीख, भूख, हुक्का, चिचियाहट।
कमल-कुमुद-पत्रों पर चोर-पैर द्रुत धावित
जल-पंछी की चाप।
थाप दादुर की चकित छलांगों की।
पन्थी के घोडे़ की टाप धीर।
अचंचल धीर थाप भैंसो के भारी खुर की।
मुझे स्मरण है
उझक क्षितिज से
किरण भोर की पहली
जब तकती है ओस-बूँद को
उस क्षण की सहसा चौंकी-सी सिहरन।
और दुपहरी में जब
घास-फूल अनदेखे खिल जाते हैं
मौमाखियाँ असंख्य झूमती करती हैं गुंजार –
उस लम्बे विलमे क्षण का तन्द्रालस ठहराव।
और साँझ को
जब तारों की तरल कँपकँपी
स्पर्शहीन झरती है –
मानो नभ में तरल नयन ठिठकी
नि:संख्य सवत्सा युवती माताओं के आशिर्वाद –
उस सन्धि-निमिष की पुलकन लीयमान।
"मुझे स्मरण है
और चित्र प्रत्येक
स्तब्ध, विजड़ित करता है मुझको।
सुनता हूँ मैं
पर हर स्वर-कम्पन लेता है मुझको मुझसे सोख –
वायु-सा नाद-भरा मैं उड़ जाता हूँ। …
मुझे स्मरण है –
पर मुझको मैं भूल गया हूँ :
सुनता हूँ मैं –
पर मैं मुझसे परे, शब्द में लीयमान।
"मैं नहीं, नहीं ! मैं कहीं नहीं !
ओ रे तरु ! ओ वन !
ओ स्वर-सँभार !
नाद-मय संसृति !
ओ रस-प्लावन !
मुझे क्षमा कर — भूल अकिंचनता को मेरी –
मुझे ओट दे — ढँक ले — छा ले –
ओ शरण्य !
मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले !
आ, मुझे भला,
तू उतर बीन के तारों में
अपने से गा
अपने को गा –
अपने खग-कुल को मुखरित कर
अपनी छाया में पले मृगों की चौकड़ियों को ताल बाँध,
अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर
अपने जीवन-संचय को कर छंदयुक्त,
अपनी प्रज्ञा को वाणी दे !
तू गा, तू गा –
तू सन्निधि पा — तू खो
तू आ — तू हो — तू गा ! तू गा !"
राजा आगे
समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था –
काँपी थी उँगलियाँ।
अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा :
किलक उठे थे स्वर-शिशु।
नीरव पद रखता जालिक मायावी
सधे करों से धीरे धीरे धीरे
डाल रहा था जाल हेम तारों-का ।
सहसा वीणा झनझना उठी –
संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गयी –
रोमांच एक बिजली-सा सबके तन में दौड़ गया ।
अवतरित हुआ संगीत
स्वयम्भू
जिसमें सीत है अखंड
ब्रह्मा का मौन
अशेष प्रभामय ।
डूब गये सब एक साथ ।
सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे ।
राजा ने अलग सुना :
"जय देवी यश:काय
वरमाल लिये
गाती थी मंगल-गीत,
दुन्दुभी दूर कहीं बजती थी,
राज-मुकुट सहसा हलका हो आया था, मानो हो फल सिरिस का
ईर्ष्या, महदाकांक्षा, द्वेष, चाटुता
सभी पुराने लुगड़े-से झड़ गये, निखर आया था जीवन-कांचन
धर्म-भाव से जिसे निछावर वह कर देगा ।
रानी ने अलग सुना :
छँटती बदली में एक कौंध कह गयी –
तुम्हारे ये मणि-माणिक, कंठहार, पट-वस्त्र,
मेखला किंकिणि –
सब अंधकार के कण हैं ये ! आलोक एक है
प्यार अनन्य ! उसी की
विद्युल्लता घेरती रहती है रस-भार मेघ को,
थिरक उसी की छाती पर उसमें छिपकर सो जाती है
आश्वस्त, सहज विश्वास भरी ।
रानी
उस एक प्यार को साधेगी ।
सबने भी अलग-अलग संगीत सुना ।
इसको
वह कृपा-वाक्य था प्रभुओं का –
उसकी
आतंक-मुक्ति का आश्वासन :
इसको
वह भरी तिजोरी में सोने की खनक –
उसे
बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सोंधी खुशबू ।
किसी एक को नयी वधू की सहमी-सी पायल-ध्वनि ।
किसी दूसरे को शिशु की किलकारी ।
एक किसी को जाल-फँसी मछली की तड़पन –
एक अपर को चहक मुक्त नभ में उड़ती चिड़िया की ।
एक तीसरे को मंडी की ठेलमेल, गाहकों की अस्पर्धा-भरी बोलियाँ
चौथे को मन्दिर मी ताल-युक्त घंटा-ध्वनि ।
और पाँचवें को लोहे पर सधे हथौड़े की सम चोटें
और छठें को लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की अविराम थपक ।
बटिया पर चमरौधे की रूँधी चाप सातवें के लिये –
और आठवें को कुलिया की कटी मेंड़ से बहते जल की छुल-छुल
इसे गमक नट्टिन की एड़ी के घुँघरू की
उसे युद्ध का ढाल :
इसे सझा-गोधूली की लघु टुन-टुन –
उसे प्रलय का डमरू-नाद ।
इसको जीवन की पहली अँगड़ाई
पर उसको महाजृम्भ विकराल काल !
सब डूबे, तिरे, झिपे, जागे –
ओ रहे वशंवद, स्तब्ध :
इयत्ता सबकी अलग-अलग जागी,
संघीत हुई,
पा गयी विलय ।
वीणा फिर मूक हो गयी ।
साधु ! साधु ! "
उसने
राजा सिंहासन से उतरे –
"रानी ने अर्पित की सतलड़ी माल,
हे स्वरजित ! धन्य ! धन्य ! "
संगीतकार
वीणा को धीरे से नीचे रख, ढँक — मानो
गोदी में सोये शिशु को पालने डाल कर मुग्धा माँ
हट जाय, दीठ से दुलारती –
उठ खड़ा हुआ ।
बढ़ते राजा का हाथ उठा करता आवर्जन,
बोला :
"श्रेय नहीं कुछ मेरा :
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब कुछ को सौंप दिया था –
सुना आपने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का था :
वह तो सब कुछ की तथता थी
महाशून्य
वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन
सबमें गाता है ।"
नमस्कार कर मुड़ा प्रियंवद केशकम्बली। लेकर कम्बल गेह-गुफा को चला गया ।
उठ गयी सभा । सब अपने-अपने काम लगे ।
युग पलट गया ।
प्रिय पाठक ! यों मेरी वाणी भी
मौन हुई।

6 टिप्पणियाँ:

  1. वाह! यह रचना देने के लिए आपको साधुवाद.

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  2. बहुत श्रम साध्य काम किया है आपने। साधुवाद!

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  3. अजय जी,

    पाण्डेय जी ने सही कहा है... आपने असाध्य को साध्य किया है... काफ़ी परिश्र्म किया है... साधुवाद

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  4. इस अद्भुत रचना को पेश करने का आभार. आप सचमुच साधुवाद के अधिकारी हैं.

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  5. Hello. This post is likeable, and your blog is very interesting, congratulations :-). I will add in my blogroll =). If possible gives a last there on my blog, it is about the Servidor, I hope you enjoy. The address is http://servidor-brasil.blogspot.com. A hug.

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  6. Jhuki huyi nazro se youn humko diwana na banao
    Sharmake tum humare dil mein youn pyaar na jatao
    Apni aadao se hunmko madhosh na karr zalim
    Humare kareeb aa kar youn tum humko na satao.

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